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बारहवां अध्याय
उषाकी गौएं
वेदकी सात नदियोंको, जलोंको, 'आप:'को वेदकी आलंकारिक भाषामें अधिकतर सात माताएँ या सात पोषक गौएं, 'सप्त धेनव: ', कहकर प्रकट किया गया है ।. स्वयं 'आप:' शब्दमें ही दो अर्थ. गूढ़ रूपसे रहते हैं; क्योंकि 'अप्' धातुके मूलमें केवल बहना अर्थ ही नहीं है जिससे, बहुत सम्भवत:, जलोंका भाव लिया गया है किंतु इसका एक .और अर्थ 'जन्म होना, 'जन्म देना' भी है, जैसा कि हम सन्तानवाचक 'अपत्य' शब्दमें और दक्षिण भारतके पिता अर्थमें प्रयुक्त होनेवाले 'अप्पा' शब्दमें पाते हैं । सात जल सत्ताके जल हैं; ये वे माताएँ हैं जिनसे सत्ताके सब रूप पैदा होते हैं । परन्तु और प्रयोग भी हमें मिलते हैं-'सप्त गाव:', सात गौएं या सात ज्योतियां और 'सप्तगु' यह विशेषण. अर्थात् वह जिसमें सात किरणें रहती हैं । गु ( ग्व: ) और गौ (गाव: ) ये दोनों आदिसे अन्त तक सारे वैदिक मन्त्रोंमें दो अथोंमें आये हैं, गाय और किरणें । प्राचीन भारतीय विचार-धाराके अनुसार सत्ता और चेतना दोनों एक दूसरेके रूप थे । और अदितिको, जो वह अनन्त सत्ता है जिससे देवता उत्पन्न हुए हैं और जो अपने सात नामों और स्थानों ( धामानि ) के साथ माताके रूपमें वर्णितकी गयी है,--यह भी माना गया है कि वह अनन्त चेतना है, गौ है या वहू आद्या ज्योति है जो सात किरणों, 'सप्त गाव: ', में व्यक्त होती है । इसलिये सत्ताके सप्तरूप होनेके विचारको एक दृष्टिकोणसे तो समुद्रसे निकलनेवाली नदियों, 'सप्त धेनव: ' ,के अलंकारमें चित्रित कर दिया गया है और दूसरी दृष्टिके अनुसार इसे सबको रचनेवाले पिता, सूर्य सविताकी सात किरणों, 'सप्त गाव:', के अलंकारका रूप दे दिया गया है ।
गौका अलंकार वेदमें आनेवाले सब प्रतीकोंमें सबसे अधिक महत्त्वका है । कर्मकाण्डीके लिये 'गौ'का अर्थ भौतिक गायमात्र है, इससे अधिक कुछ नहीं; वैसे ही जैसे उसके लिये इसके साथ आनेवाले 'अश्व' शब्दका अर्थ केवल भौतिक घोड़ा ही है, इससे अधिक इसमें कुछ अभिप्राय नहीं है, अथवा जैसे 'धृत'का अर्थ केवल पानी या घी हैं और 'वीर'का अर्थ केवल पुत्र या अनुचर या सेवक है | जब ॠषि उषाकि स्तुति करता है--"गोमद् वीरवाद् धेहि १७० रत्नम् उषो अश्वावत्'' उस समय कर्भकाण्डपरक व्याख्याकारको इस प्रार्थना-में केवल उस सुखमय धन-दौलतकी ही याचना दीखती है जो .गौओं, वीर मनुष्यों ( या पुत्रों ) और घोड़ोंसे युक्त हो । दूसरी तरफ यदि ये शब्द प्रतीकरूप हों, तो इसका अभिप्राय होगा--'' हमारे अन्दर आनन्दकी उस अवस्थाको स्थिर करो जो ज्योतिसे, विजयशील शक्तिसे और प्राणबलसे भरपूर हो ।'' इसलिये यह आवश्यक है कि एक बार सभी स्थलोंके लिये वेद-मन्त्रोंमें आनेवाले द्यौ शब्दका अर्थ क्या है, इसका निर्णय कर लिया जाय । यदि यह सिद्ध हो जाय कि यह प्रतीकरूप है, तो निरन्तर इसके साथ आनेवाले अश्व ( घोड़ा ), वीर (मनुष्य या शूरवीर ), अपत्य या प्रजा ( औलाद ), हिरण्य ( सोना ), वाज ( समृद्धि, या सायणके अनुसार, अन्न ) ,-इन दूसरे शब्दोंका अर्थ भी अवश्य प्रतीकरूप और इसका सजातीय ही होगा ।
'गौ' का अलंकार वेदमें निरन्तर उषा और सूर्यके साथ संबद्ध मिलता है । इसे हम उस कथानकमें भी पाते हैं जिसमें इन्द्र और बृहस्पसिने सरमा कुतिया ( देवशुनी ) और अंगिरस् ऋषियोंकी मददसे पणियोंकी गुफामेंसे खोयी हुई गौओंको फिरसे प्राप्त किया है । उषाका विचार और अङिगरसों का कथानक ये मानो वैदिक संप्रदायके ह्रदयस्थानीय है और इन्हें करीब-करीब वेदके अर्थोके रहस्यकी कुंजी समझा जा सकता है । इसलिये इन दोनों की हमें अवश्य परीक्षा कर लेनी चाहिये, जिससे आगे अपने अनुसंघानके लिये हमें एक दृढ़ आधार मिल सके ।
अब वेदके उषासंबंधी सूक्तोंको .बिलकुल ऊपर-ऊपरसे जांचने पर भी इतना बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उषाकी गौएं या सूर्यकी गौएं 'ज्योति''-का प्रतीक हैं, इसके सिवाय वे और कुछ नहीं हो सकतीं । सायप्रा खुद इन मंत्रोंका भाष्य करते हुए विवश होकर कहीं इस शब्दका अर्थ ' गाय' करता है और कहीं 'किरणें', हमेशाकी अपनी आदतके अनुसार परस्पर संगति बैठानेकी भी कुछ पर्वाह नहीं रखता; कहीं वह यह भी कह जाता है कि 'गौ' का अर्थ सत्यवाची ' ॠत' शब्दकी तरह पानी होता है ।. असलमें देखा जाय तो यह स्पष्ट है कि इस शब्दसे दो अर्थ लिये जाने अभिप्रेत हैं-- ( १ ) ' प्रकाश' इसकी असली अर्थ है और ( २ ) ' गाय' इसका स्थूल रूपक- रूप और शाब्दिक-अलंकारमय अर्थ है ।
ऐसे स्थलोंमें जैस कि इन्द्रके विषयमें मयुच्छुन्दस् ऋषिके सूक्त ( १.७ ) का तीसरा मंत्र है जिसमें यह कहा गया है-' इन्द्रने दीर्ध दुर्शननके लिये सूर्यको द्युलोकमें चढ़ाया, उसने उसे उसकी गौओं (किरणों) के १७१ द्वारा सारे पहाड़ पर पहुंचा दिया--बि गोभि: अद्रिम् ऐरवरंयत्,1 गौओंका अर्थ 'किरणें' है इसमें कोई मतभेद नहीं हो सकता ।' परन्तु इसके साथ ही सूर्यकी किरणें 'सूर्य' देवताकी गौएं. है, हीलियस ( Helios) की वे गौएं हैं जिनका ओडिसी (Odyssey) में ओडिसस (Odysseus) के साथियोंने वध किया है, जिन्हें हर्भिज. ( Hermes) के लिये कहे गये होमरके गीतोंमें हर्मिजमे अपने भाई अपोलो (Apollo) के पाससे चुराया है । ये वे गौएं हैं जिन्हें ' वल'नामक शत्रुने या पणियोंने छिपा लिया था । जव मधुच्छन्दस् इन्द्रको कहत!है--'तूने वलकी उस गुफाको खोल दिया; जिसमें गौएं बंद पड़ी थीं' --तब उसका यही अभिप्राय होता है कि वल गौओंको कैद करनेवाला है, प्रकाशको रोकनेवाला है और उस रोके हुए प्रकाशको इन्द्र यज्ञ करनेवालोंके लये फिरसे ला देता है । खोयी हुई या चुरायी हुई गौओंको फिरसे पा लेनेका वर्णन वेदके मंत्रोंमें लगातार आया है और इसका अभिप्राय पर्याप्त स्पष्ट हो जायगा जब कि हम पणियों और अंगिरसोंके कथानककी परीक्षा करना शुरू करेंगे ।
एक बार यदि वह अभिप्राय, यह अर्थ सिद्ध हो जाता है, स्थापित हो जाता ह तो 'गौओं'के लिये की गयी वैदिक प्रार्थनाओंकी जो भौतिक. व्याख्याकी जाती है वह एकदम हिल जाती है । क्योंकि खोयी हुई गौएं जिन्हें फिरसे पा लेनेके लिये ऋषि इन्द्रका आह्यान करते हैं, से यदि द्राविड़ लोगों द्वारा चुरायी गयी भौतिक गौएं नहीं हैं किन्तु सूर्यकी या ज्योतिकी चमकती हुई गौएं हैं, तो हमारा यह विचार बनाना न्यायसंगत ठहरता है कि जहाँ केवल गौओंके लिये ही प्रार्थना है और साथमें कोई विरोधी निर्देश नहीं है वहां भी यह अलंकार लगता है, वहां भी गौ भौतिक गाय नहीं है । उदाहरणके लिये ॠ. १ .४. १, २2 में इन्द्रके विषयमें कहा गया है कि वह पूर्ण रूपोंको बनानेवाला है और दोहनेवालेके लिये भरपूर दूध देनेवाली गौके समान है, कि उसका सोम-रससे चढ़नेवाला मद सचमुच गौओंको देनेवाला है, 'गोदा इद् रेवतो 'मद :' । यदि इस कथनका यह अर्थ समझा जाय की _____________ 1 .इसका अनुवाद हम यह भी कर सकते हैं कि '' उसने अपने वज्र (अद्रि) को उससे निकलती हुई दिप्तियों के साथ "चारों और भेजा" पर यह अर्थ| उतना अच्छा और संड़त नहीं लगता | किन्तु यदि हम इसे ही मानें, तो भी 'गोमिः'का अर्थ 'किरणें' ही होता है, गाय पशु नहीं |
2. सुरूपकृत्नुमुतये सुदुधामिव गोदुहे | जुहूमसि प्रविधवि ||
उप नः सवना गहि
सोमस्य सोमयाः पिब | १७२ इन्द्र कोई बड़ा समृद्धिशाली देवता है और जब वह पिये होता है उस समय गौओंके दान करनेमें बड़ा उदार हो जाता है, तो निरर्थकता और असंगतता-की हद ही हो जायगी । यह स्पष्ट है कि जैसे पहली ॠचामें गौओंका दोहना एक अलंकार है, वैसे ही दूसरीमें गौओंका देना भी अलंकार ही है । और यदि हम वेदके दूसरे संदर्भोंसे यह जान लें कि 'गौ' प्रकाशका प्रतीक है तो यहाँ भी हमें अवश्य यही समझना चाहिये कि इन्द्र जब सोम-जनित आनंदमें भरा होता है तब वह निश्चित ही हमें ज्योतिरूप गौएं देता है ।
उषाके सूक्तोंमें भी गौएं ज्योतिका प्रतीक हैं यह भाव वैसा ही स्पष्ट है । उषाको सब जगह 'गोमती' कहा गया है, जिसका स्पष्ट ही अवश्य यही अभिप्राय होना चाहिये कि वह ज्योतिर्मय या किरणोंवाली है क्योंकि यह तो बिलकुल मूर्खतापूर्ण होगा कि उषाके साथ एक नियत विशेषणके तौर पर 'गौओंसे पूर्ण' यह विशेषण शाब्दिक अर्थमें ही प्रयुक्त किया जाय । पर वहां विशेषणमें गौओंका रूप प्रतीकात्मक है, क्योंकि उषा केवल 'गोमती' ही नहीं है वह 'गोमती अश्वावती' है, वह हमेशा अपने साथ अपनी गौएं और अपने घोड़े रखती है । 'वह सारे संसारके लिये ज्योतिको रचती है और अंधकारको 'गी'के बाड़ेकी न्याईं खोल देती है ।' 1.9241 । यहां हम देखते है कि बिना किसी भूलचूककी संभावनाके गौ ज्योतिका प्रतीक ही है । हम इसपर भी ध्यान दे सकते हैं कि इस सूक्त ( मंत्र १६ ) में अश्विनोंको कहा गया है कि वे अपने रथको उस पथ पर हांककर नीचे ले जायें जो ज्योतिर्मय और सुनहरा है2-- 'गोमद् हिरण्यवद्' । इसके अति-रिक्त उषाके संबंधमें कहा गया है. कि उसके रथको अरुण गौएं खींचती हैं और कहीं यह भी कहा गया है कि अरुण घोड़े खींचते हैं । 'वह वरुण गौओंके समूहको अपने रथमें जोतती है--युङ्ग्क्ते गवामरुणानामनीकम्', 1.24.11 । यहां 'अरुण किरणोंके समूहको' यह दूसरा अर्थ भी स्थूल अलंकारके पीछे स्पष्ट ही रखा हुआ है । उषाका वर्णन इस रूपमें हुआ है कि वह गौओं या किरणोंकी माता है, 'गवां जनित्री अकृत प्र केतुम्, ।.124.5--गौओं ( किरणों ) की माता ने अन्तर्दर्शन ( Vision) को रचा है ।' और दूसरे स्थान पर उसके कार्यके विषयमें कहा गया है 'अब अन्तर्दर्शन या बोध उदित हो गया है, जहां पहले कुछ नहीं ( असत्) था ।''3 इससे _______________ 1. ज्योतिर्विश्वस्मै भवनाय कृष्णती गावो न व्रजं व्युषा आवर्तम: । १.९२.४ 2. अश्विना वर्तिरस्मदा गोमद् दस्त्रा हिरण्यवत् । अर्वाप्रथं समनसा नि यच्छतम् | (१.९२.१६) 3. वि नूनमुच्छाद् असति प्र केतुः | (१.१२४.११ ) १७३ पुन: यह स्पष्ट है कि 'गौएं' प्रकाशकी ही चमकती हुई किरणें हैं । उषाकि इस रूपमें भी स्तुतिकी गयी है कि वह 'चमकती हुई गौओंका नेतृत्व करने-वाली है (नेत्री गवाम्, ७.७.६.६)', और एक दूसरी ॠचा इसपर पूरा ही प्रकाश डाल देती है जिसमें ये दोनों ही विचार इकट्ठे आ गये हैं, "गौओं की माता, दिनों की नेत्री" (गवां माता मेत्री अह्नाम्, ७-७७-२ ) । अन्तमें मानों इस अलंकार परसे आवरणको कतई हटा देनेके लिये ही वेद स्वयं हमें कहता है कि गौएं प्रकाशकी किरणोंके लिये एक अलंकार हैं. ''उसकी सुखमय किरणें दिखाई दीं, जैसे छोड़ी हुई गौएं''--प्रति भद्रा अदृक्षत.गवां सर्गा न रश्मय:, 4.52.5 । और हमारें सामने इससे भी अधिक निर्णयात्मक एक दूसरी ॠचा (7.79.2) है--''तेरी गौएं (किरणें) अन्धकारको हटा देती हैं और ज्योतिको फैलाती हैं'', सं ते गावस्तम आवर्त्त्ययन्ति ज्योति-र्यच्छन्ति ।1
लेकिन उषा इन प्रकाशमय गौओं द्धारा केवल खींची हीं नहीं जाती, वह इन गौओंको यज्ञ करनेवालोंके लिये उपहाररूपमें देती भी है । वह जब इन्द्रकी ही भांति सोमके आनन्दमें होती है, तो ज्योतिको देती है । वसिष्ठ-के एक सूक्त (७.७५ )में उसका वर्णन इस रूपमें है कि वह देवोंके. कार्यमें हिस्सा लेती है और उससे वे दृढ़ स्थान जहां गौएं बन्द पड़ी हैं, टूटकर खुल जाते हैं और गौएं मनुष्योंको दे दी जाती हैं । ''वह2 सच्चे देवोंके साथ सच्ची है, महान् देवोंके साथ महान् है, वह दृढ़ स्थानोंको तोड़कर खोलती है और प्रकाशमय गौओंको दे देती है, गौएं उषाके प्रति रँभाती हैं''--रुजद् दृळहानि ददद् उस्त्रियाणाम्, प्रति गाय उषसं वावशन्त, 7.75.7 । और ठीक अगली ही ॠचामें उससे प्रार्थनाकी गयी है कि वह यज्ञ-कर्त्ताके लिये आनन्दकी उस अवस्थाको स्थिर करे या धारण करावे, जो प्रकाशसे (गौओं)से, अश्वोंसे (प्राणशक्तिसे) और बहुत-से सुख-भोगोंसे परिपूर्ण हो--'गोमद् रत्नम् अश्वावत् पुरुभोज:'' । इसलिये जिन गौओंको __________ 1. निस्सन्देह इसमें तो मतभेद हो ही नहीं सकता कि वेदमें गौका अर्थ प्रकाश है; उदाहरणके लिये जब यह कहा जाता है कि 'गवा', 'गौ'से, प्रकाशसे, वृत्रको भाग गया तो वहां गाय पशुका तो कोर्द प्रश्न ही नहीं है । यदि प्रश्न है तो यह कि 'गौ'का प्रयोग द्रयर्थक है या नहीं और गौ प्रतीकरूप है कि नहीं । 2. सत्या सत्येमिर्महती महाद्धिर्देवी देवेभिर्यजता यजत्रैः । रजद् वृळहानि ददढ़ुस्रियाणां प्रति गाव उषसं वावशन्त ।। (७.७५.७) नू नो गोमद् विरबद् धेहि रत्नमुषो अश्वावत् पुरुभोजो अस्मे | (७.७५.८) १७४ उषा देती है वे गौएं ज्योतिकी ही चमकती. हुई सेनाएं है, जिन्हें देवता और अंगिरस् ॠषि वल और पणियोंके दृढ़ स्थानोंसे उद्धार करके लाये हैं । साथ ही गौओं ( और अश्वों ) की सम्पत्ति जिसके लिये ऋषि लगातार प्रार्थना करते हैं उसी ज्योतिकी सम्पत्तिके अतिरिक्त. और कुछ नहीं हो सकती; क्योंकि यह कल्पना असंभव-सी है कि जिन गौओंको 'देनेके लिये इस सूक्त की सातवीं ॠचामें उषाको कहा गया है वे उन गौओंसे भिन्न हों जो ८वीं में मांगी गयी हैं, कि पहले मन्त्रमें 'गौ' शब्दका अर्थ है 'प्रकाश' और अगलेमें 'गाय', और यह कि ऋषि मुखसे निकालते ही उसी क्षण यह भूल गया कि किस अर्थमें वह शब्द का प्रयोग कर रहा था ।
कहीं-कहीं ऐसा है कि प्रार्थना ज्योतिर्मय आनन्द या ज्योतिर्मय समृद्धिके लिये नहीं है, वल्कि प्रकाशमय प्रेरणा या बलके लिये है, 'हे द्युकी पुत्री उषा : ! तू हमारे अन्दर सूर्यकी रश्मियोंके साथ प्रकाशमय प्रेरणाको ला'--'गोमतीरिष आवह दुहितर्दिव:, साकं सूर्यस्य रश्मिभि :', 5.79.8 | सायणने गोभती: इषः'का अर्थ किया है 'चमकता हुआ अन्न1 । परन्तु यह स्पष्ट ही एक निरर्थक-सी बात लगती है कि उषासे कहा जाय कि वह सूर्यकी किरणोंके साथ, किरणोंसे ( गौओंसे ) युक्त अन्नोंको लाये । यदि ' इष्' का अर्थ अन्न है; तो हमें इस प्रयोगका अभिप्राय लेना होगा 'गोमांसरूपी अन्न', परन्तु यद्यपि प्राचीन कालमें, जैसा कि ब्राह्मणग्रंथोंसे स्पष्ट है, गोमांसका खाना निषिद्ध नहीं था, फिर भी उत्तरकालीन हिंदुओंकी भावनाको चोट पहुंचानेवाला होनेसे जिस अर्थको सायणमे नहीं लिया है, वह अभिप्रेत ही नहीं है और यह भी वैसा ही भद्दा है जैसा कि पहला अर्थ । वह बात ऋग्वेदके एक दूसरे मन्त्रसे सिद्ध हो जाती है जिसमें अश्विनोंका आह्वान किया गया है कि वे उस प्रकाशमय प्रेरणाको दें जो हमें अंधकारमेंसे पार कराकर उसके दूसरे किनारे पर पहुचा देती है--'या न: पीपरद् अश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिर:, ताम् अस्मे रासाथाम् इषम्' 1 .46.6 ।
इन नमूनेके उदाहरणोंसे हम समझ सकते हैं कि प्रकशकी गौओंका यह अलंकार कैसा व्यापक है और कैसे अनिवार्य रूपसे यह वेदके लिये एक अध्यात्मपरक अर्थकी ओर निर्देश कर रहा है । एक सन्देह फिर भी बीचमें आ अपस्थित होता है । हमने माना कि वह एक अनिवार्य परिणाम है कि 'गौ' प्रकशके लियें प्रयुक्त हुआ है, पर इससे हम क्यों न समझें कि इसका सीधा-सादा मतलब दिनके प्रकाशसे है, जेसा कि वेद की भाषासे निकलता _______________ 1. गोमतिर्गोभिरूपेतानि आवह आनय---सायण | १७५ प्रतीत होता है ? वहां किसी प्रतीककी कल्पना क्यों करें, जहां केवल एक अलंकार ही है ? हम उस दुहरे अलंकारकी कठिनाईको निमंत्रण क्यों दें जिसमें 'गौ'का अर्थ तो हो 'उषाका प्रकाश' और उषाके प्रकाशको 'आन्तरिक ज्योति'का प्रतीक समझा जाय ? यह क्यों न मान ले कि ऋषि आत्मिक ज्योतिके लिये नहीं; बल्कि दिनके प्रकाशके लिये प्रार्थना कर ऐ थे ?
ऐसा मानने पर अनेक प्रकारके आक्षेप आते हैं और उनमें कुछ तो बहुत प्रबल हैं । यदि हम यह मानें कि वैदिक सूक्तोंकी रचना भारतमें हुई थी और यह उषा भारतकी उषा है और यह रात्रि वही यहाँ की दस या बारह घष्टेकी छोटी-सी रात है, तो हमें यह स्वीकार करके चलना होगा कि वैदिक ऋषि जंगली थे, अन्धकारके भयसे बड़े भयभीत रहते थे और समझते थे कि इसमें भूत-प्रेत रहते हैं, वे दिन-रातकी परम्पराके प्राकृतिक नियमसे भी--जिसका अबतक बहुतसे सूक्तोंमें बड़ा सुन्दर चित्र खिंचा मिलता है--अनभिज्ञ थे और उनका ऐसा विश्वास था कि आकाशमें जो सूर्य निकलता था और उषा अपनी बहिन रात्रिके आलिंगनसे छूटकर प्रकट होती थी, वह सब केवल उनकी प्रार्थनाओंके कारण से ही होता था । पर फिर भी वे देवोंके कार्यमें अटल नियमोंका वर्णन करते हैं और कहते हैं कि उषा हमेशा शाश्वत सत्य व दिव्य नियमके मार्गका अनुसरण करती है । हमें यह कल्पना करनी होगी कि ॠषि जब उल्लासमें भरकर पुकार उठता है 'हम अंधकारको पार करके दूसरे किनारे पहुंच गये हैं' ! तो यह केवल दैनिक सूर्योदय पर होनेवाला सामान्य. जागना ही है । हमें यह कल्पना करनी होगी कि वैदिक लोग उषा निकलने पर यज्ञके लिये बैठ जाते थे और प्रकाशके लिये प्रार्थना करते थे, जब कि वह पहलेसे ही निकल चुका होता था । और यदि हम इन सब असभव कल्पनाओंको मान भी लें, तो आगे हमें यह एक स्पष्ट कथन मिलता है कि. नौ या दस महीने बैठ चुकनेके उपरान्त ही यह हो सका कि अंगिरस् ऋषियोंको खोया हुआ प्रकाश और खोया हुआ सूर्य फिर से मिल पाया । और जो पितरों के द्वारा 'ज्योंति' के खोजे जाने का कथन लगातार मिलता है, उसका हम क्या अर्थ लगायेंगे ? जैसे:--
''हमारे पितरोंने छिपी हुई ज्योतिको ढूंढ़कर पा लिया, उनके विचारोंमें जो सत्य था, उसके द्वारा उन्होंने उषाको जन्म दिया-गूळ्हं ज्योति: पितरो अन्वविन्दन् सत्यमन्त्रा अजनयन् 'उषासुम्, ७.७६.४।'' यदि हम किसी भी साहित्यके किसी कविता-संग्रहमें इस प्रकारका कोई पद्य पावें, तो तुरन्त हम उसे एक मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक रूप दे देंगे, तो फिर वेदके साथ हम दूसरा ही बर्ताव करें इसमें कोई युक्तियुक्त कारण नहीं दीखता | १७६ फिर भी यदि हमें वेदके सूक्तोंकी प्रकृतिवादी ही व्याख्या करनी है और कोई नहीं, तो भी यह बिलकुल साफ है कि वैदिक उषा और रात्रि कम-से-कम भारतकी रात्रि और उषा तो नहीं हो सकतीं । यह केवल उत्तरी ध्रुवके प्रदेशोंमें ही हो सकता हैं कि इन प्रकृतिकी घटनाओंके संबंधमें ऋषियोंकी जो मनोवृत्ति है और अंगिरसोंके विषयमें जो बातें कही गयी हैं ये कुछ समझमें आने लायक बन सकें । प्राचीन वैदिक आर्य उत्तरीय ध्रुवसे आये, इस कल्पना ( वाद ) को क्षणभर के लिए मान लेनेपर यह बहुत अधिक संभव हो सकता है कि उत्तरोय घ्रुवकी स्मृतियाँ वेदके बाह्य अर्थमें आ गयी हों, फिर भी यह कल्पना उस आन्तरिक अर्थका निराकरण नहीं करती जो प्रकृतिसे लिये गये इन प्राचीन अलंकारोंके पीछे छिपा है, न ही इसके मान लेनेसे यह सिद्ध हो जाता है कि उषासंबंधी ॠचाओंकी इसकी अपेक्षा और अधिक सुसंबद्ध और सीधी-स्पष्ट किसी दूसरी व्याख्याकी आवश्यकता नहीं है ।
उदाहरणके लिये हमारे सामने अश्विनोंको कहा गया प्रस्कण्व काण्काव सूक्त ( १.४६ ) है जिसमें उस ज्योतिर्मय अन्तःप्रेरणाका संकेत है जो हमें अन्घकारमेंसे पार कराके परले किनारेपर पहुँचा देती है । इस सूक्तका उषा और रात्रिके वैदिक विचारके साथ घनिष्ठ संबंध है । इसमें वेदमें नियत रूपसे आनेवाले बहुतसे अलंकारोंका संकेत मिलता है; जैसे ॠतके मार्गका, नदियोंको पार करनेका, सूर्यके उदय होनेका, उषा और अश्विनोंमें परस्पर-संबंधका, सोम-रसके रहस्यमय प्रभावका और उसके सामुद्रिक रसका ।
''देखो, आकाशमें उषा खिल रही है; जिससे अधिक उच्च और कोई वस्तु नहीं है, जो आनन्दसे भरी हुई है । हे अश्विनो ! मैं तुम्हारी महान् स्तुति करता हूं ( 1 ) ।1 तुम जिनकी सिंधु माता है, जो कार्यको पूर्ण । ______________ 1. एवो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिव: । स्तुषे वामश्विन बृहत् ।। (१-४६-१ ) या रखा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ।। २।। आदारो वां मतीना नासत्या मतवचसा । पातं सोमस्य घृष्णुया ।।५।।. या न: पीपरवश्विना ज्योतिष्ममी तमस्तिर: । तामस्मे रासायामिषम् ।।६।। आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे । युञ्जामश्विना रयम् ।।७।। अरित्रं वां दिवस्पृषु तीर्थे रथः | धिया युयुज्र इन्दवः ||८|| दिवस्कच्वास इन्दवो वसु सिन्धुनां पदे । स्वं वर्त्रि कुह धित्सयः।।९।। अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्य: । हयज्जिह्ययासितः ।।१०।।. अभूदु पारमेतवे पन्दा ॠतस्य साधुया । अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ||११|| तत्तदिदमोरवो अरिता प्रति भुवति | मदे सोमस्य पिप्रन्तोः ||१२|| १७७ करनेवाले हो, जो मनमेंसे होते हुए उस पार पहुंचकर ऐश्वर्यो (रयि ) को पा लेते हो, जो दिव्य हो और उस ऐश्वर्य ( वसु ) को विचारके द्वारा पाते ही ( 2 ) । हे समुद्रयात्राके देवो जो शब्दको मनोमय करनेवाले हो ! यह तुम्हारे विचारोंको भंग करनेवाला है--तुम प्रचंड रूपसे सोमका पान करो ( 5 ) । हे अश्विनो ! हमें वह ज्योतिष्मती अन्त:प्रेरणा दो, जो हमें तमस्से निकालकर पार पहुंचा दे ( 6 ) । हमारे लिये तुम अपनी नाव पर बैठकर चलो, जिससे हम मनके विचारोंसे परे परले पार पहुंच सकें । हे अश्विनो ! तुम अपने रथको जोतो ( 7 ) । अपने उस .रथको जो द्युलोक-में इसकी नदियोंको पार करनेके लिये एक बड़े पतवारवाले जहाजका काम देता है । विचारके द्वारा आनन्दकी शक्तियां जोती गयी हैं ( 8 ) । जलों-के स्थान ( पद ) पर द्युलोकमें आनन्दरूपी सोम-शक्तियां ही वह ऐश्वर्य (वसु) हैं । पर अपने उस आवरणको तुम कहां रख दोगे, जो तुमने अपने-आपको छिपानेके लिये बनाया है ( 9 ) । नहीं, सोमका आनन्द लेनेके लिये प्रकाश उत्पन्न हो गया है,--सूर्यने, जो अन्धकारमय था, अपनी जिह्वा-को हिरण्यकी ओर लपलपाया है ( 10 ) । ऋतका मार्ग प्रकट हो गया है, जिससे हम उस पार पहुंचेगे; द्युके बीच का सारा खुला मार्ग दिखलायी पड़ गया है ( 11 ) । खोजनेवाला अपने जीवनमें अश्विनोंके निरन्तर एक-के बाद दूसरे आविर्भावकी ओर प्रगति किये चलता है ज्यों-ज्यों वे सोमके आनन्दमें तृप्ति-लाभ करते हैं ( 12 ) । उस सूर्यमें जिसमें सब ज्योति ही ज्योति है, तुम निवास करते हुए (या चमकते हुए ), सोम-पानके द्वारा, वाणीके द्वारा हमारी मानवीयतामें सुखका सर्जन करनेवाले के रूपमें आओ ( । 3 ) । तुम्हारी कीर्त्ति और विजयके अनुरूप उषा हमारे पास आती है जब तुम हमारे सब लोकोंमें व्याप्त हो जाते हो और तुम रात्रिमेंसे सत्योंको विजय कर लाते हो ( 1 4 ) । दोनों मिलकर हे अश्विनो, सोम-पान करो, दोनों मिलकर हमारे अंदर शान्तिको प्राप्त कराओ उन विस्तारोंके द्वारा जिनकी पूर्णता सदा अविच्छिंन्न रहती है ( 15 ) । ''
यहं इस सूक्तका सीधा और स्वाभाविक अर्थ है और हमें इसका भाव समझनेमें कठिमाई नहीं होगी, यदि हम वेदके मूलभूत विचारों और अलंकारोंको स्मरणा रखेंगे । 'रात्रि' स्पष्ट ही आन्तरिक अंधकारके लिये आलंकारिक _____________ वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा । मनुष्पच्छंभू आ गतम् ।।१३|| युवोरुधा अनु श्रियं परिज्मनोरूपाचरत् । ॠता वनथो अक्तुभिः ||१४|| उभा पिबतमश्विभा नः यच्छतम् | अविद्रियाभिरुतिभिः ||१५|| १७८ रूपसे कहा गया है; उषाके आगमनके द्वारा रात्रिमेंसे 'सत्यों'को जीतकर हस्तगत किया जाता है । यही उस सूर्यका, सत्य के सूर्यका उदय होना है जो अंधकारके बीचमें खो गया था--यही उस खोये हुए सूर्यका परिचित अलंकार है जिसे देवों और अङ्गरस ऋषियोंने फिरसे पाया-और अब यह अपनी अग्निकी जिह्याको स्वर्णीय ज्योतिके प्रति, हिरण्यके प्रति, लपलपाता है । क्योंकि हिरष्य, सुवर्ण उच्चतर ज्योतिका स्थूल प्रतीक है, यह सत्यका सोना है और यही वह निधि है, न कि कोई सोनेका सिक्का, जिसकें लिये वैदिक ऋषि देवोंसे प्रार्थना करते हैं । आन्तरिक अंधकारमेंसे निकालकर ज्योतिमें लानेके इस महान् परिवर्तनको अश्वी करते हैं, जो मन- की और प्राण-शक्तियोंकी प्रसन्नतायुक्त ऊर्ध्वगतिके देवता हैं, और इसे वे इस प्रकार करते हैं कि आनन्दका अमृतरस मन और शरीरमें उँडेला जाता और वहां वे इसका पान करते हैं । वे व्यंजक शब्दको मनोमय रूप देते हैं वे हमें विशुद्ध मनके उस स्वर्गमें ले जाते हैं जो इस अंधकारसे परे है और वहां वे विचारके द्वारा आनन्दकी शक्तियोंको काममें लाते हैं ।
पर वे द्युके जलोंको भी पार करके उससे भी ऊपर चले जाते हैं, क्योंकि सोमकी शक्ति उन्हें सब मानसिक रचनाओंको तोड़ डालनेमें सहायता देती है और वे इस आवरणको भी उतार फेंकते हैं । वे मनसे परे चले जाते हैं और सबसे अन्तिम चीज जो वे प्राप्त करते हैं वह 'नदियोंका पार करना' कही गयी है, जो कि विशुद्ध मनके द्युलोकमेंसे गुजरनेकी यात्रा है, वह यात्रा है जिससे सत्यके मार्ग पर चलकर परले किनारे पर पहुंचा जाता है और जबतक अन्तमें हम उच्चतम पद, परमा परावत्, पर नहीं पहुंच जाते तबतक हम इस महान् मानवीय यात्रासे विश्राम नहीं लेते ।
हम देखेंगे कि न केवल इस सूक्तमें बल्कि सब जगह उषा सत्यको लानेवालीके रूपमें आती है, स्वयं वह सत्यकी ज्योतिसे जगमगानेवाली है । वह दिव्य उषा है और यह भौतिक उषा (प्रभात होना ) उसकी केवल छायामात्र है और प्राकृतिक जगत्में उसका प्रतीक है । १७९
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